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الجمعة، 17 أبريل 2020

Cultural Values of Indian Cinema - भारतीय सिनेमा के सांस्कृतिक महत्व

 Cultural Values of Indian Cinema - भारतीय सिनेमा के सांस्कृतिक महत्व 

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ये जो दर्पण है ,यही तो सबसे बड़ा समर्पण है
 कर्त्तव्य निष्ठा की आंच में जो जल कर सजल हुवा
चित्रपट की छाया पर वो ही अमर हुवा वो ही अमर हुवा
 

यह बहुत ही गंभीर विषय है। मुझे नहीं पता कि आप इस विषय को किस तरह से देखते हैं या फिर कितनी गहराई से सोचते हैं। लेकिन मुझे यह भी पता है की यह कोई जरूरी नहीं है कि हर मुददा किसी दूसरे व्यक्ति के लिए मुद्दा हो। जिसकी जिंदगी ऐसो-आराम से गुजर रही हो, जिसको सामाजिक सरोकार से कोई लेना-देना नहीं है उसके लिए कभी भी कोई सामाजिक मुद्दा या सामाजिक समस्या एक मुद्दा नहीं हो सकता। मुद्दा तब होता जब उसे भी उस चीज से तकलीफ होती है या उसका जीवन उन सभी चीजों से प्रभावित हो रहा होता हो । सांस्कृतिक हास एक बहुत ही धीमी परिक्रिया है शायद यही वजह है जिसकी वजह से लोग बरसो से अपने सांस्कृतिक मूल्यों को गिरता देखते है और चुप रहते है ।


                आज जिस विषय पर हम  बात कर रहे है उसे समाज का आइना भी कहा जाता है ,ऐसा आइना जिसका प्रतिबिम्ब फिल्म इंडस्ट्री से बनता है । भारतीय सिनेमा जगत राजा हरिश्चंद्र के स्वर्णिम युग से शुरु होकर मर्डर ,जुली और जिस्म जैसी फिल्मो पर दम तोड़ देता है । सत्यता के सिद्धांत से शुरु होकर नग्नता तक के दौर तक भारतीय सिनेमा जगत ने काफी बदलाव देखे है । इसमें कोई दो राय नही की बदलते वक़्त के साथ हर चीज़ बदल जाती है , पर हिंदी सिनेमा जगत ने पहले मूल्यों को बदला और फिर बाद में सारे समाज को ।


                 


   
                                                                                                                                                                                                                                                        
                आपको तो पता ही होगा। आज के समय में जो फिल्में आ रही हैं उनमें कितनी अश्लीलता परोसी जाती है और यह सब चीजें सिर्फ इसलिए परोसी जाती हैं क्योंकि हमारे देश की आबादी इतनी घनी है जिसमें  नौजवानों की संख्या ज्यादा है, जो हमारे फिल्म इंडस्ट्री के लिए कमाई का जरिया है। जिन्हें वह अश्लील चीजें परोस कर अपना पैसा छापते हैं और हमारे नौजवानों को और बच्चों को गलत दिशा पर ले जाती हैं, उनको भड़काने का काम करती हैं, उनको अपराध की गलियों में ढकेलने का काम करती है। समाज में अपराध बढ़ने का एक यह भी मुख्य कारण है। जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।

                        आज अश्लीलता परोसी जाने के इतने सस्ते साधन मार्केट में, बाजारों में उपलब्ध है जिसका कोई हिसाब नहीं है। ऑनलाइन आपको नेटफ्लिक्स ,अमेज़न,उल्लू आदि के  मात्र 36 रु के पैक से आप अश्लील  और हिंसक दुनिया की सैर कर सकते है ।  सबसे बड़ा चिंता का विषय ये है की आज हर हाथों में मोबाइल का ट्रेंड है, अब हर बच्चे और युवा के हाथो में मोबाइल है ,ऐसी कामुक चीज़े उनमें में आ चुकी है ये पूरी नस्ल को बर्बाद कर रहा है परन्तु सब मौन है ,बनाने वाले सिर्फ इसे व्यपार के मकसद से बनाते है और बेच कर मुनाफा कमा रहे हैं या व्यापार कर रहे हैं जिसका बाजार बहुत बड़ा है और बढ़ता ही जा रहा है। टी.वी पर साबुन और बॉडी लोशन की एडवर्टाइजमेंट करने के लिए जीन अभिनेत्रीयों और मॉडल का सहारा लेकर अंग प्रदर्शन करके चीजों को लोगों के सामने परोसा जाता है वह भी एक तरह की इंडस्ट्री है। जिनका करोड़ों का कारोबार है। आप सोच सकते हैं यह चीजें किस हद तक अपना पैर जमा चुकी है जिसको साफ करना लगभग नामुमकिन सा हो गया है और यह आजकल के लोगों के लिए फैशन भी बन गया है।




              
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21 अप्रैल  1913 को जब  राजा हरिश्चंद्र ने परदे पर आगाज किया था। तब शायद ही किसी ने अनुमान लगाया होगा की भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में छाया-चलचित्र इतनी महतवपूर्ण भूमिका अदा कर सकते है । आज जब गौरवपूर्ण भारतीय इतिहास का वर्णन आता है तो चलचित्रों का वर्णन न हो ऐसा नही हो सकता । परन्तु इन 107 साल के फ़िल्मी इतिहास में जितना नैतिक पतन 90 दसक के बाद हुवा वो आज तक चला आ रहा है । चलचित्रों का व्यवसायकरण तक तो ठीक था परन्तु  नैतिकता को  ताक पर रख कर ऐसी चीज़े परोसना जो नई नस्ल को पाश्चात्य सभ्यता ले जा रहा है। जिसने समाज में ऐसी घटिया विचारधारा को जन्म  दिया है ।


                             आप देख सकते हैं आजकल की दिखाई जाने वाली फिल्म और सीरियल में परिवार को तोड़ना, शादी होते ही लड़कों का अपने माता-पिता से अलग हो जाना और अपने ही मां-बाप को अपने साथ रखने से कतराना। आज की समय की कड़वी सच्चाई है। पहले लोग काम की तलाश में घरों से दूर जाने के लिए मजबूर होते थे, लेकिन अब लोग घरों से दूर जाने के लिए बहाने ढूंढते हैं ताकि वह बाहर जाकर अपने मन मुताबिक मनमाने ढंग से जिंदगी जीए। व्यक्ति के आजादी के नाम पर शराब, नशीली चीजें, गाली-गलौज, अभद्र व्यवहार, अभद्र कपड़े (जिसे आजकल के नौजवानों के बीच कुल कपड़े कहकर प्रमोट किया जाता है ) आवारागर्दी करना, जानवरों और राक्षसों की भांति रहन-सहन इत्यादि को आजादी से रहने का नाम दिया गया है। इन सब चीजों को हमारी फिल्मों में बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है। इसे हमारी फिल्मों में अभिव्यक्ति के आजादी का नाम दिया जाता है या अभिव्यक्ति के आजादी के नाम के तौर पर पेश किया जाता है। इन लोगों ने आजादी की परिभाषा ही बदल कर रख दी है।




सिनेमा की समाज में क्या भूमिका है ? ??

           
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सिनेमा किसी दीवार पर टंगी वो तस्वीर है जिसे हजारों नही करोड़ो लोग देखते है और उसके हावभाव को अपने जीवन में उतार लेते है । विज्ञानं ने भी ये सिद्ध किया है  की देखी हुई चीज़े लम्बे समय तक मस्तिष्क पर असर करती है और घटना को जीवंत बना देती है । ये ठीक वैसे ही है जैसे की रुपहले पर्दे पर किसी इंसान को इंसानियत का देवता के रूप में दिखाया जाता है , सत्यता की मूर्ति के रूप में अंकित किया जाता है और दर्शक दीर्घा में बैठा हर सख्श उस वक़्त अपने कमियों और अच्छाईयों का मूल्याकन कर रहा होता है । फिर वो ही किरदार पूरी उम्र कुछ लोगो के जेहन मे घर कर जाता है ।

                    आज का युवा मस्तिष्क भी बिलकुल ऐसा ही हो गया है । हमारे आज के नौजवानों ने भी फूहड़-और अश्लील चीजों को अपनी जिंदगी में शामिल कर लिया है और इन्हीं को अपनी जिंदगी बना ली है। ऐसा हो भी क्यों ना, क्योंकि जो चीज ज्यादा दिखाई जाएगी उस चीज को दिमाग ग्रहण कर लेता है। वो चीज हमारे व्यवहार में शामिल हो जाती है, क्योंकि जिस चीज को इंसान ज्यादा देखता है उसके दिमाग पर उन सब चीजों का प्रभाव पड़ता है और वह बनता भी वही है। जब चारों तरफ यही चीजें दिखाई जाएंगी, चारों तरफ जब इन्हीं सब चीजों की बातें होंगी, जब आज के बच्चों का अपने घर-परिवार से नाता कम होगा और बाहर बार, शराब और अय्याशी से नाता ज्यादा होगा तो जाहिर सी बात है वह वैसे बनेंगे भी। इन सब चीजों को कई लोग आधुनिकता का नाम देते हैं जो की यह उनकी संकीर्ण मानसिकता को दिखाता है। जिन्हें आधुनिकता और गंदगी में फर्क नहीं दिखाई देता बिल्कुल वैसे ही जैसे गोबर और घास में अंतर ना कर पाना।


पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित सिनेमा ने कौन-कौन से बदलाव किये  ???

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ये सबसे महत्वपूर्ण सवाल है की आखिर ऐसी कौन सी आदते और सामाजिक ढांचा है जिस पर हिंदी सिनेमा का बहुत गहरा असर पड़ा है । शौक से शुरु हुई कुछ आदते आज युवा हो या फिर बुजुर्ग ,महिला हो या पुरुष ,बच्चा हो या बड़ा सबके जीवन में इस तरह घुल गई है जैसे चीनी या नमक पानी में घुल जाता है ,इतने आन्दोलन ,इतने संगठन और इतनी मुहिमो के बाद भी आज समाज का एक बड़ा तबका बुराइयों का प्रतिकार करने की जगह इसका नेतृतव कर रहा है । कुछ चीज़े जो बहुत आम हो गई है ..

 कई नौजवान हाथ और मुंह में सिगरेट लिए हुए और धुआं फूंकते हुए टशन में जाते हुए दिखाई दे ही जाएंगे जो खुद तो धुआ छोड़ते है और मुफ्त में दूसरों को भी उसका धुंआ सुंघने को मजबूर कर  देते हैं। कबीर सिंह जैसी घटिया फ़िल्में करोड़ों के कारोबार का रिकॉर्ड तोड़ती है जिसे लोग "माचो-मैन" कहके संशोधित करते हैं। ऐसी चीजों को देखकर ऐसा लगता है मानों लोग भी इसी वाट में बैठे होते हैं कि कब उन्हें ऐसी फिल्में देखने को मिलेंगी। कितनी अजीब बात हैं लोग खुद ऐसे फिल्में बड़े ही चाव के साथ देखते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके बच्चे और समाज सभ्य और संस्कारी बने। आज के समय में जो फिल्में आती हैं वो परिवार के साथ बैठकर देखने योग्य नहीं होती।




और पढ़े -नौजवानों के बिगड़ने के कारण और उनका समाधान


 सिनेमा में  शराब और नशे के आधुनिक साधनों का धड़ले से  प्रयोग किया जाता है, साथ में एक नोट - लिखा जाता है ,की निर्देशक ,या प्रोडूसर ऐसी किसी चीज़ का समर्थन नही करते , हैरान करने वाली बात है आप किरदार की कास्टिंग उसके बिना कर सकते है। अगर वो प्रभावित न करता तो उसका असर एक तबके पर क्यों होता है, तो फिर उस नोट का क्या मतलब ???

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पुरुषो का महिलाओ के प्रति आकर्षण लाजमी है ,पर हमारी हिंदी सिनेमा ने महिलाओ और पुरुषो के बीच नग्नता को वो पैमाना सेट कर दिया है की इसका असर मुहल्लों और शहर की सड़को पर देखा जा सकता है। किस तरह एक जोड़ा  खुले -आम अश्लील  हरकते करते हुवे लिप्त पाया जाता है । कुछ लोग इस फुहड़ता को डेमोक्रेसी की आजादी की संज्ञा देते है ।

                        आपने एक और चीज सुनी होगी जो आज-कल फैशन में बना हुआ है लिव-इन-रिलेशनशिप इन चीजों को बहुत जोर-शोर से प्रमोट किया जा रहा है। यह तो बिल्कुल एक तरह का लाइसेंस ले के देह व्यापार करने का जरिया बन गया है। जब तक एक दूसरे से संतुष्ट हैं तब तक, जब तक दो लोग एक-दूसरे की जरूरतों को पूरा कर रहे है तब तक, फिर मन भरने पर बिना किसी कोर्ट-कचहरी और कानूनी कार्यवाही के दांव-पेंच से बचकर चीजों को सस्ते में रफा-दफा करके निपटा देना। आसानी से अलग हो जाना और फिर किसी नए की तलाश में लोगों को कपड़े की तरह बदलते जाओ और जिंदगी को खेल बना दो। लोगों को कपड़ों की तरह पहनने ओढ़ने वाली चीज बना दो। कहीं ना कहीं ये लोग (फिल्म इंडस्ट्री) शादी जैसे रिश्ते को उबाऊ, मुसीबत और परेशानियों के ढांचे के रूप में दिखाने की कोशिश करते हैं।


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शादी जैसा रिश्ता जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के साथ बंधता है। जो समाज और परिवार से जुड़ा होता है। जिसमें रिश्तो को जल्दी तोड़ना आसान नहीं होता। यदि कोई रिश्ता तोड़ना चाहे तो उसे कोर्ट-कचहरी का चक्कर काटना पड़ता है, घर और परिवार के बारे में सोचना पड़ता है। जहां शादी जैसे रिश्ते मे सब के बारे में सोचना पड़ता है और दुनियाभर की चीजें होती है।  वहीं अय्याश किस्म के लोग जिन्हें हर कुछ समय बाद एक नए व्यक्ति की तलाश होती है। उन्हें शादी जैसी चीज पसंद नहीं आती। वो लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी घटिया रिश्ते को ही बढ़ावा देते हैं और ना जाने कितनो की जिंदगी खराब करते हैं। अपनी जिंदगी बिताने के लिए शार्ट टर्म चीजों का सहारा लेते हैं। और साथ के साथ समाज में गंदगी और अपराध को भी बढ़ावा देते हैं। हमारी फिल्म इंडस्ट्रीज इन सब चीजों को हमारे आज के बच्चों और नौजवानों में शादी के प्रति ऐसी गलत भावनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं और लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी चीजों को मजेदार और अच्छे चीज के तौर पर पेश करके दिखाते हैं जो निहायती घटिया होता है। यह तो अच्छा है कि हमारे समाज में शादी जैसी संस्था बनाई गई है। यदि कोई व्यक्ति एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना चाहता हैं तो उसे शादी जैसे रिश्ते में बंधना पड़ता है। जो जरूरी भी है जिससे एक परिवार की नीव बनती है जिससे परिवार बनता है। सोचिए यदि लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी चीजें हमारे यहां पूरी तरह से स्थापित कर दी जाए तो क्या होगा। फिर तो सड़क पर बच्चे चल रहे होंगे जिनके मां-बाप का कोई अता-पता नहीं होगा और घर-परिवार जैसी चीज का नामोनिशान मिट जाएगा। कुछ लोग हमारे देश को अमेरिका बनाना चाहते हैं जो वही के ख्यालात में जीते हैं लेकिन रहते यहां हैं। कितनी अजीब बात है।

                                यदि आप अपने बच्चों को धार्मिक ग्रंथों और इतिहासों को पढ़ने के लिए बोल दे, तो वह यह कहकर मुंह बना लेते है यह तो पुराने जमाने की चीज है या फिर यह बहुत ही बोरिंग चीज है इसे हम नहीं पढेंगे। कभी सोचा है ऐसी सोच उनकी बनी कैसे। आज-कल के जो माता-पिता हैं वह भी स्टाइल मारने में चूर रहते हैं। उन्हें खुद ही इन सब चीजों का होश नहीं रहता तो वह अपने बच्चों को क्या अच्छी चीजें सिखाएंगे और बताएंगे। हमारे धार्मिक ग्रंथों और किताबों में अपार ज्ञान भरा होता है, अच्छी बातें बताई गई हैं, अच्छी आदतें है। यदि बच्चों को बचपन में ही यह सब चीजें सिखाई-पढ़ाई जाती तो बच्चो का गलत राह पर जाने की संभावना कम होती और मां-बाप भी निश्चिंत रहते। लेकिन जब मां-बाप को ही यह सब चीजें अच्छी नहीं लगती तो वह बच्चों को क्या सिखाएंगे।



 आखिर सरकारी निगरानी तंत्र अपारदर्शी कैसे  ??

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  भारत में कंटेंट (लिखित,छायाचित्र,छाया-चलचित्र) के प्रसारण और प्रसार हेतु सरकारी संस्थाए नामित है ,जो विषय-वस्तु की सार्थकता और उसके समाज पर पढ़ने वाले आकलन के बाद उसे प्रसारित होने के लिए इजाजात देती है । परंतु आज  इन संस्थाओं के होने पर संशय बना हुआ है कि क्या यह संस्था अपने कर्तव्य का पूर्ण रूप से  निर्वाहन कर पा रही हैं। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन भारतीय  फिल्मों का  सर्टिफिकेट देने का काम करता है । सीबीएससी  एकमात्र ऐसी संस्था है  जो फिल्मों में उपयोग होने वाले विषय वस्तु की निगरानी करती है  परंतु आज इस संस्था पर सवालिया निशान लग गया है । कई बार देखा गया है कि यह उन फिल्मों को भी  यूए (UA-12, 12 साल से अधिक के बच्चे अकेले और 12 साल से कम उम्र के बच्चें माता-पिता की निगरानी में देख सकते है ) सर्टिफिकेट दे देता है।  जिसका छोटे बच्चों पर व्यापक असर होता है जो अश्लील विषय वस्तु और हिंसा से परिपूर्ण होते हैं । समय-समय पर सीबीएफसी पर उंगलियां उठती रही हैं ।

अगला प्रश्न यह उठता है कि फिल्मों में प्रसारित होने वाले विषय वस्तु और बेहद कामुक चीजों का स्तर क्या होना चाहिए ??   इस पर भी यह संस्था अपने जिम्मेदारी को लेकर पारदर्शी नहीं है जब निगरानी तंत्र ही अपारदर्शी होगा तो हम साफ-सुथरे फिल्मों की आशा कैसे कर सकते हैं  ??   
           

आम जन की भागीदारी जरूरी क्यो ??


कोई भी आंदोलन आमजन की भागीदारी के बिना कभी सफल नहीं हो पाया। भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है आज भी समाज में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने इसकी मशाल जला रखी है। अपनी परंपराओं को अश्लीलता और  फूहड़ता से बचाने की नैतिक जिम्मेदारी समाज के आमजन की होती है। हमें चाहिए कि हम अपने युवा मस्तिष्क को अच्छी चीजें देखने और सुनने के लिए प्रेरित करें उन्हें रामायण, महाभारत और गीता जैसी चीजें देखने और सुनने के लिए उत्साहित करें । बचपन से ही हमारे युवा और नौजवानों को ऐसी शिक्षा ऐसे संस्कार दिया जाए कि वह हिंदी सिनेमा में प्रयोग होने वाले अश्लील और कामुक चीजों पर ध्यान ना दें। हम किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री से ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि जो लोग फुहड़ता फैला रहे हैं या इन सब चीजों की गिरफ्त में है वो कैसे इसे रोकेंगे। आज हम जहां खड़े हैं हर चीज का व्यवसायीकरण हो चुका है । हम उन अभिनेता या अभिनेत्रियों को तो नहीं बदल सकते हैं लेकिन अपने घर में रह रहे छोटे बच्चों, नौजवानों, महिलाओं और पुरुषों को जरूर बदल सकते हैं ।


जब भी कोई ऐसी फिल्म या कोई लघु सिनेमा आपकी जानकारी में आए जो अश्लीलता का प्रचार प्रसार करती हो तो उसकी रिपोर्ट जरूर करें और अपनी आपत्ति दर्ज कराएं
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नोट -(इस लेख का मकसद ना तो किसी की प्रतिष्ठा को और ना ही किसी की भावनाओं को आहत करने का है लेख में दी हुई विचारधारा लेखक के निजी विचार है अगर इसे किसी को चोट पहुंचती है तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा)



पूर्वी

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